शनिवार, 9 अगस्त 2008

मङ्गलाचरण
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
अक्षरों,अर्थसमूहों, रसों छन्दों और मंगलों की करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ।।
नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुविर्प्रतमं कवीनाम् ।
न ऋते त्वत् क्रियते किंचनारे महामर्कं मघमञ्चित्र मर्च ।।
(ऋग्वेद १०।११२।९)
अर्थात-
हे गणपति! आप अपने भक्तजनों के मध्य प्रतिष्ठित हों। त्रिकालदर्शी ऋषिरूप कवियों में श्रेष्ठ! आप सत्कर्मो के पूरक हैं। आपकी अराधना के बिना दूर या समीप में स्थित किसी भी कार्य का शुभारम्भ नही होता । हे सम्पति एवं ऐश्वर्य के अधिपति! आप मेरी इस श्रद्धायुक्त पूजा-अर्चना ,अभीष्ट फल को देने वाले यज्ञ के रूप में सम्पन्न होने हेतु वर प्रदान करें।
उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्ते देवयन्तस्त्वेमहे ।
उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा।।
(ऋग्वेद १।४०।१)
हे मंत्रसिद्धि के प्रदाता परमदेव ! सत्यसंकल्प से आपकी ओर अभिमुख हमें आपका अनुग्रह प्राप्त हो। शोभन दान से युक्त वायुमंडल हमारे अनुकूल हो। हे सुख-धन के अधिष्ठाता! भक्ति-भाव से समर्पित भोग-राग को आप अपनी कृपा-दृष्टि से अमृतमय बनादें।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कविनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृ्ण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ।।
(ऋग्वेद २।२३।१)
वसु,रुद्र,आदित्य आदि गणदेवों के स्वामी,ऋषिरूप कवियों में वंदनीय दिव्य अन्न-सम्पति के अधिपति,समस्त देवों में अग्रगण्य तथा मन्त्र-सिद्धि के प्रदाता हे गणपति! यज्ञ,जप तथा दान आदि अनुष्ठानों के माध्यम से आपका आह्वान करतें हैं। अप हमें अभय वर प्रदान करें।
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
(ऋग्वेद ३।६२।१०)
उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप,श्रेष्ठ, तेजस्वी परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
(ऋग्वेद ७।५९।१२) (शुक्ल यजुर्वेद ३।६०)
अर्थात-
हम त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर की पूजा करते हैं,मंत्यधर्म से (मरणशील मानवधर्म मृत्यु से) रहित दिव्य सुगन्धि से युक्त, उपासकों के लिये धन-धान्य आदि पुष्टि को बढ़ाने वाले हैं। वे त्रिनेत्रधारी उर्वारुक(कर्कटी या ककड़ी-जो पकने पर स्वतः पौध से अलग हो जाती है) फल की तरह हम सबको अपमृत्यु या सांसारिक मृत्यु से मुक्त करें। स्वर्गरूप या मुक्तिरूप अमृत से हमको न छुड़ायें अर्थात् अमृत-तत्व से हम उपासकों को वंचित न करे ।
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।
अर्थात- पापों का शोधन करने वाली वेदमाता हम द्विजों को प्रेरणा दें। मनोरथों को परिपूर्ण करने वाली वेदमाता आज हमने स्तुति की है। मनोऽभिलासित वरप्रदात्री यह माता हमें दीर्घायु, प्राणवान्;, प्रजावान्, पशुमान् धनवान्, तेजस्वी तथा कीर्तिशाली होंने का आशीर्वाद देकर ही ब्रह्मलोक को पधारें।
ॐ असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमय।।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदः पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात्- ॐ की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहते हैं कि - वह भी पूर्ण हे, यह भी पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है,और पूर्ण से पूर्ण निकल जाने के बाद पूर्ण ही शेष रह जाता है। ईश्वर परोक्ष है। जीव प्रत्यक्ष है। ईश्वर की पूर्णता प्रसिद्ध है किन्तु जीव भी अपूर्ण नहीं है क्यों कि जीव ईश्वर का ही अंश है।

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